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Shukravar Vrat Katha : शुक्रवार के दिन जरूर पढ़ें ये व्रत कथा, घर में कभी नहीं होगी धन संपदा की कमी

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Shukravar Vrat Katha
Shukravar Vrat Katha

Shukravar Vrat Katha : शुक्रवार के दिन जरूर पढ़ें ये व्रत कथा, घर में कभी नहीं होगी धन संपदा की कमी शुक्रवार का व्रत करने से भगवान श्री लक्ष्मी माँ को प्रसन्न करने के लिए रखा जाता हैं। इसके साथ शुक्रवार व्रत जब किया जाता है जब आपकी कुंडली में शुक्र ग्रह अच्छा परिणाम ना दे रहा हो या दशा और अंतर्दशा में अच्छा परिणाम नही दे रहा हो तो भी शुक्रवार व्रत करना लाभदायक रहता हैं। शुक्रवार व्रत करने से जातक धन, विवाह, संतान आदि भौतिक सुखो में वृद्धि होती हैं।

शुक्रवार व्रत कथा Shukravar Vrat Katha

एक बड़ा शहर था। इस शहर में लाखों लोग रहते थे। पहले के ज़माने के लोग साथ साथ रहते थे और एक दूसरे के काम आते थे। पर नए ज़माने के लोगो का स्वरुप ही अलग सा है। सब अपने काम में रत रहते है। किसी को किसी की परवाह नही। घर के सदस्यों को भी एक दूसरे की परवाह नहीं होती। भजन – कीर्तन, भक्ति भाव, दया – माया, परोपकार जैसे संस्कार कम हो गए है। शहर में बुराइयाँ बढ़ गई थी। शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी – डकैती वगैरह बहुत से गुनाह शहर में होते थे।

एक प्रसिद्द कहावत है कि निराशा में एक अमर आशा छिपी होती है। इसी तरह इतनी सारी बुराइयों के बावजूद शहर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे। ऐसे अच्छे लोगों में शीला और उनके पति की गृहस्थी मानी जाती थी। शीला धार्मिक प्रगति की और संतोषी थी। उनका पति भी विवेकी और सुशील था। शीला और उनका पति ईमानदारी से जीते थे। वे किसी की बुराई न करते थे और प्रभु भजन में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे। उनका गृहस्थी आदर्श गृहस्थी थी और शहर के लोग उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे।

शीला की गृहस्थी इसी तरह ख़ुशी ख़ुशी चल रही थी। पर कहा जाता है कि ‘कर्म की गति अटल है।’ विधाता के लिखे लेख कोई नहीं समझ सकता है। इन्सान का नसीब पल भर में राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा। शीला के पति के अगले जन्म के कर्म को भोगने को बाकी रह गए होगे कि वह बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठा। वह जल्द से जल्द करोड़पति होने के ख्वाब देखने लगा। इसलिए वह गलत रास्ते पर चढ़ गया और करोडपति की बजाय रोडपति बन गया यानि रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी उनकी हालत हो गयी थी।

शहर में शराब, जुआ, रेस, गांजा वगैरह बदियाँ फैली हुई थी। उसमे शीला का पति भी फंस गया। दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई। जल्द से जल्द पैसे वाला बनने के लालच में दोस्तों के साथ जुआ भी खेलने लगा। इस तरह बचाई हुई धन राशि, पत्नी के गहने सब कुछ रेस जुए में गवां दिया।

इसी तरह एक वक्त ऐसा था जब वह सुशील पत्नी शीला के साथ मजे में रहता था और प्रभु भजन में सुख शांति से अपना वक्त व्यतीत करता था। जबकि अब उसके घर में दरिद्रता और भूखमरी फैल गई। सुख से खाने के बजाय दो वक्त भोजन के लाले पड़ गए थे और तो शीला को पति की गालियाँ खाने का वक्त आ गया था।

शीला सुशील और संस्कारी स्त्री थी। उसको पति के बर्ताव से बहुत दुःख हुआ किन्तु वह भगवान पर भरोसा करके बड़ा दिल रख कर दुःख सहने लगी। कहा जाता है कि ‘सुख के पीछे दुःख’ और ‘दुःख के पीछे सुख’ आता ही है। इसलिए दुःख के बाद सुख आएगा ही, ऐसी श्रध्दा के साथ शीला प्रभु भक्ति में लीन रहने लगी।

इस तरह शीला असहाय दुःख सहते सहते प्रभु भक्ति में वक्त बिताने लगी। अचानक एक दिन दोपहर को उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी। शीला सोच में पड़ गई कि मुझ जैसे गरीब के घर इस वक्त कौन आया होगा ? फिर भी द्वार पर आये हुए अतिथि का आदर करना चाहिए। ऐसे आर्यधर्म के संस्कार वाली शीला ने खड़े होकर द्वार खोला।

देखा तो सामने एक माँ जी खड़ी थी। वे बड़ी उम्र की लगती थी। किन्तु उनके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था। उनकी आखों में मानो अमृत बह रहा था। उनका भव्य चेहरा करुणा और प्यार से झलकता था। उनको देखते ही शीला के मन में अपार शांति छा गई वैसे शीला इस माँ जी को पहचानती नहीं थी। फिर भी उनको देखकर शीला के रोम रोम में आनंद छा गया। शीला माँ जी को आदर के साथ घर में ले आई। घर में बिठाने के लिए कुछ भी नहीं था। अत: शीला सकुचा कर एक फटी हुई चद्दर पर उनको बिठाया।

माँ जी ने कहा “ क्यों शीला ! मुझे पहचाना नही ?”

शीला न सकुचा कर कहा “ माँ ! आपको देखकर बहुत ख़ुशी हो रही है। बहुत शांति हो रही है। ऐसा लगता है कि मैं बहुत दिनों से जिसे ढूढ रही थी वे आप ही है। पर मैं आपको पहचान नहीं सकती।”

माँ जी ने हंस कर के कहा “क्यों ? भूल गई ? हर शुक्रवार को लक्ष्मी जी के मंदिर में भजन कीर्तन होते हैं, तब मैं भी वहाँ आती हूँ। वहाँ हर शुक्रवार को हम मिलते है।” जबसे पति गलत रास्ते पर चढ़ गया तब से शीला बहुत दुखी हो गई थी और दुःख की मारी वह लक्ष्मी जी के मंदिर में भी नहीं जाती थी। बाहर के लोगों के साथ नज़र मिलाते उसे शर्म लगती थी। उसने याददास्त पर जोर दिया पर यह माँ जी याद नहीं आ रही थी।

तभी माँ जी ने कहा “तू लक्ष्मी जी के मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी। अभी अभी तू दिखाई नहीं देती थी , इसलिए मुझे हुआ कि तू क्यों नहीं आती है ? कहीं बीमार तो नहीं हो गयी है न ? ऐसा सोचकर मैं तुझे मिलने चली आई हूँ।” माँ जी के अति प्रेम शब्दों से शीला का ह्रदय पिघल गया। इसकी आखों में आसूं आ गए माँ जी के सामने वह बिलख बिलख कर रोने लगी। यह देखकर माँ जी शीला के नजदीक सरकी और उसकी सिसकती पीठ पर प्यार भरा हाथ फेरकर सान्त्वना देने लगी।

माँजी ने कहा, बेटी ! सुख और दुःख तो धूप और छाँव जैसे होते हैं। सुख के पीछे दुःख आता है, तो दुःख के पीछे सुख भी आता है। धैर्य रखो बेटी और तुझे क्या परेशानी है ? तू अपना दर्द मुझे सुना। इससे तेरा मन तो हल्का होगा ही और तेरे दुःख का कोई उपाय भी मिल जायेगा।

उनकी बाते सुनकर शीला के मन को बड़ी शांति मिली। उसने माजी से कहा, माँ ! मेरी गृहस्थी में भरपूर सुख और खुशियां थी। मेरे पति भी बहुत सुशिल थे। भगवान की कृपा से पैसे की बात में भी हमें बड़ा संतोष था। हम शांति से गृहस्थी चलाते और ईश्वर भक्ति में अपना वक्त व्यतीत करते थे। यकायक हमारा भाग्य हमसे रूठ गया। मेरे पति की बुरी दोस्ती हो गयी। बुरी दोस्ती की वजह से वे शराब, जुआ, रेस, चरस, गांजा वगैरह ख़राब आदतों के शिकार हो गए है और उन्होंने सब कुछ गवां दिया और अब हम लोग रास्ते के भिखारी जैसे बन गए है।

यह सुन कर माँ जी ने कहा “सुख के पीछे दुःख’ और ‘दुःख के पीछे सुख’ आता ही रहता है। ऐसा भी कहा जाता है कि ‘कर्म की गति न्यारी होती है।’ हर इन्सान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते है। इसलिए तू चिंता न कर अब तू कर्म भुगत चुकी है। अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आयेगे। तू तो माँ लक्ष्मी जी की भक्त है। माँ लक्ष्मी जी तो प्रेम और करुणा की अवतार है। वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती है। इसलिए तू धैर्य रख कर माँ वैभवलक्ष्मी जी का व्रत कर। इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा।

वैभवलक्ष्मी व्रत करने की बात सुनकर शीला के चेहरे पर चमक आ गई। उसने माँ जी से व्रत विधि की जानकारी ली। माँ जी ने भी वैभवलक्ष्मी व्रत की शास्त्रीय विधि उसे विस्तार से सुनाया जिसे सुनकर शीला भावविभोर हो उठी। उसे लगा मानो सुख का रास्ता मिल गया है। उसने आंखे बंद करके मन ही मन उसी क्षण संकल्प लिया कि हे वैभवलक्ष्मी माँ ! मैं भी माँ जी के कहे मुताबिक श्रद्दा से शास्त्रीय विधि अनुसार वैभवलक्ष्मीव्रत इक्कीस शुक्रवार तक करूंगी और व्रत की शास्त्रीय विधि अनुसार उद्द्यापन भी करूंगी।

शीला ने संकल्प करके आँखे खोली तो सामने कोई भी न था। वह विस्मित हो गई की माँ जी आखिर कहा चली गई ? ये माँ जी और कोई नहीं बल्कि साक्षात् लक्ष्मी जी थी। चूकी शीला लक्ष्मी जी की परम भक्त थी इसलिए वो अपने भक्त को रास्ता दिखाने के लिए स्वयं ही आई थी।

संयोगवश दूसरे दिन शुक्रवार था। शीला ने पुरे मन और श्रद्दा भाव से वैभवलक्ष्मी का व्रत रखा और पूजा के प्रसाद को सबसे पहले अपने पति को खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया। उस दिन उसने शीला को मारा नहीं और न ही उसे सताया। शीला को बहुत आनन्द हुआ एवं उसके मन में वैभवलक्ष्मी व्रत के प्रति श्रद्दा और बढ़ गई।

इस तरह शास्त्रीय विधिपूर्वक शीला ने श्रद्दा से व्रत किया और तुरंत ही उसे इसका फल मिला। उसका पति जो गलत रास्ते पर चला गया था वो अब अच्छा आदमी बन गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा। माँ लक्ष्मी जी के वैभवलक्ष्मी व्रत के प्रभाव से उसको व्यवसाय में ज्यादा मुनाफा हुआ। उसने तुरंत शीला के गिरवी रखे गहने छुड़वा लिए। शीला के घर में अब पहले जैसी सुख – शांति छा गई।

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